
एक कहानी
(For English version, please see my next post)
बैंक को कर्मचारी अभिप्रेरणा के लिए एक वृहद प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारंभ करना था। चूंकि रेखा को बैंक में प्रशिक्षण का अनुभव था, पिछले साल सेवानिवृति हो जाने के बाद भी उसे बुलाया गया था इस कार्य के लिए।
यह कार्यक्रम एक कंसल्टेंसी संस्था “माइंड मूव” कर रही थी, जिसने भावी प्रशिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए मुंबई के ताज होटल में एक कार्यशाला का आयोजन किया कि कार्यक्रम को कब और कैसे मूर्त रुप देना है। इसमें रेखा भी गई।
पर यह क्या? बैंक के अध्यक्ष के साथ पधारने वाला व्यक्ति तो जाना कुछ परिचित सा लगा। किसी ने रेखा को बताया कि वह फर्म के मुखिया रोहन पेडणेकर हैं। करीब पैंतीस वर्षों के बाद गंजे रोहन को देख उसे सुखद आश्चर्य हुआ। प्रतिभागियों के परिचय के दौरान दोनों का आमना सामना हुआ और फिर सत्र का आरंभ।
सत्र चल रहा था लेकिन रेखा यादों के झंझावात में डूबी हुई थी। रोहन और रेखा ने एक ही दिन 15 जून 1984 को भोपाल में एक राष्ट्रीयकृत बैंक की एक ही शाखा में परिविक्षाधीन अधिकारी (पीओ) के रूप में अपने व्यवसायिक जीवन की शुरुआत की थी।
एक ही बैच के होने के कारण दोनों की स्थिति एक जैसी थी। कुछ ही दिनों में वे अच्छे दोस्त बन गए। अधिकांश समय बैंक में दोनों साथ बिताते थे। रेखा का जन्म और पालन-पोषण भोपाल में ही हुआ था, जबकि रोहन अपने पैतृक स्थान नागपुर से दूर अकेला रह रहा था। हर रविवार को रोहन रेखा के घर जाने लगा था। रेखा की बहनें और माता पिता भी उसकी सादगी और व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे।
सात महीने बाद दोनो को दूसरी शाखाओं में भेजा गया आगे के अंतः कार्य प्रशिक्षण के लिए। रेखा की पदस्थी तो भोपाल में ही रह गई, पर रोहन को अकोला जाना पड़ा। उन दिनों मोबाइल का जमाना तो था नहीं, पर “चिट्ठी” से उनका संपर्क बना रहा। वे दोनों मध्य प्रदेश की विभिन्न शाखाओं में तैनात होते रहे, लेकिन फिर कभी किसी एक शाखा में एक साथ नहीं रह पाए।
दो वर्षों के बाद दोनों की सेवा में पुष्टि हो गई। रोहन को अंततः सतना में पदस्थी मिली, जबकि रेखा को भोपाल स्थित एक शाखा में। इसी बीच रोहन को एक विदेशी निवेश बैंक से एक प्रस्ताव मिला, और उसने उस अवसर का लाभ उठाया। मुंबई जाने से पहले रोहन भोपाल आया था रेखा से मिलने के लिए। रेखा उसे पास के एक देवी मंदिर ले गई, जहां दोनो ने प्रार्थना की। यह उन दोनों के लिए बेहद भावुक पल था।
समय के साथ दोनों अपनी अपनी दुनिया में खो गए। संपर्क भी टूट गया। इस बीच रेखा के परिवार ने उसकी शादी करा दी बैंक में ही कार्यरत एक अधिकारी सलिल से। उनके दो बेटे भी हुए।
सलिल एक गर्म मिजाज व्यक्ति था, अपनी ही धुन में रहने वाला। रेखा को जब स्तन कैंसर हुआ था, उसके इलाज और कीमोथेरेपी के दौरान भी सलिल का व्यवहार उदासीन और रूखा ही बना रहा।
एक दिन सलिल शाम को किसी बात पर बैंक से गुस्से में लौटा, दो पेग चढ़ाया और बिना नाश्ता किए चला गया सोसाइटी के स्विमिंग पुल में। तीन घंटे बाद सलिल की लाश तैरती हुई मिली।
रेखा के जीवन में एक और बदलाव आया, जबरदस्त बदलाव। बच्चों की पढ़ाई, स्कूल और बैंक में उसका अपना अस्तित्व ही कहीं गुम हो गया। बच्चे बड़े हुए, अच्छी शिक्षा के बाद नौकरी भी मिल गई उन्हें। बाद में एक बेटा सिंगापुर में बस गया, तो दूसरा सिडनी में। अब रेखा बिल्कुल अकेली थी।

रेखा का कार्यशाला में मन नहीं लग रहा था। वह तो सत्रावसान की प्रतीक्षा करती रही। यही हाल रोहन का था। पांच मिनट के उद्घाटन भाषण के बाद वह भी पुराने विचारों में खो गया था। रेखा की पुरानी “तस्वीर” उभर आई। कहां झूले पर पेंगें लगाने वाली वह चंचल रेखा और कहां यह शांत सौम्य प्रौढ़ा, बालों में चांदी की आभा लिए।
सत्र समाप्त हुआ, और साथ ही दोनों की प्रतीक्षा भी। घंटों बातें होती रही। पेशेवर जीवन से लेकर बच्चों और माता-पिता तक की चर्चा हुई। रोहन ने बताया कि कैसे वह परिवार की जिम्मेदारी, अपनी बहनों की शादी और अपने करियर के चक्कर में उलझा रहा। शादी करने की बात कभी जेहन में ही नहीं आया उसे।
लेकिन रोहन ने स्वीकारा,
“मैं ने कई बार भोपाल में तुम्हें प्रोपोज करना चाहा था, पर बोल नही पाया। डरता था कि कहीं तुम इनकार न कर दो। और फिर हमारी दोस्ती भी खत्म हो जाती।”
रेखा ने भी तब “राज” खोला कि वह उसे आखिरी दिन इसलिए मंदिर ले गई थी, ताकि दोनों खुलकर बातें कर सकें। सलिल आश्चर्य से पूछा,
“लेकिन तुमने इस बारे में एक शब्द नहीं बोला।”
रेखा फट पड़ी, “मैं कैसे बोलती? एक लड़का होने के नाते पहल तुम्हें करनी थी। तुमसे कहीं ज्यादा संकोच मुझे था कि तुम क्या सोचोगे। काश उस दिन तुम बोल देते रोहन।”
रोहन अवाक था। रेखा को एकटक देखता रहा। कुछ देर बाद उसने रेखा के हाथ थामते हुए बोला,
“तब नहीं बोल पाया। अब बोल दूं?”
रेखा ने हां में सिर्फ मुस्कुरा दिया। फिर बड़ी गंभीरता से रोहन ने कहा,
” क्या तुम मेरे गंजेपन को अपने बालों की सफेदी से खत्म करने को तैयार हो?”
फिर दोनों जोर से हंस पड़े, दिन के अवसान की उस बेला में एक शुभारंभ की स्वीकारोक्ति के रूप में।

— कौशल किशोर
images: pixabay
बहुत अच्छी और प्रेरक अभिव्यक्ति है सर ।
उम्र कोई भी साथी की जरूरत होती है ।
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बहुत सही कहा आपने। धन्यवाद आपको।
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brilliant sir…
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Thank you so much 😊
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साथी की जरूरत
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सही है
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